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jaunpur newws :मेंहदी,झूले और कजरी अब यादों की बात

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jaunpur newws :मेंहदी,झूले और कजरी अब यादों की बात
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डिजिटल दौर में सावन सूना हो गया: मेंहदी, झूले और कजरी अब यादों की बात

खेतासराय (जौनपुर): बारह महीनों के चक्र में सावन वह महीना है, जो न केवल प्राकृतिक हरियाली लेकर आता है, बल्कि इसमें धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक विरासत, लोक परंपराएं, और सामूहिक उल्लास का अनोखा संगम देखने को मिलता था। यह महीना शिव भक्ति, मेंहदी, कजरी, झूला, और हरियाली तीज के माध्यम से ग्रामीण जीवन की जीवंतता को प्रकट करता था। लेकिन डिजिटल युग की चकाचौंध में अब यह सब स्मृतियों में सिमट कर रह गया है।

सावन की पवित्रता और आस्था

हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, सावन मास भगवान शंकर को समर्पित होता है। इस दौरान सोमवार व्रत, जलाभिषेक, और श्रृंगार की विशेष परंपरा होती है। विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं तो अविवाहित युवतियां मनचाहा वर पाने की मन्नतें करती हैं। पारंपरिक रूप से हाथों में मेंहदी रचाना, रंगीन चूड़ियों और हरी साड़ी में सजना इस मौसम का अभिन्न हिस्सा रहा है।

सावन और लोकजीवन

सावन के साथ झूला झूलने, कजरी गायन, और सखियों के संग उत्सव मनाने की परंपरा गांव-गांव में जीवंत हुआ करती थी। पेड़ों की डालियों पर झूलते झूले और उसमें झूमती महिलाएं, बालिकाएं सावन के उल्लास का प्रतीक होती थीं। गांव की पगडंडियों से लेकर खेत-खलिहानों तक गीतों की गूंज, कोयल की कूक, और मोर के नृत्य सावन की पहचान थे।

बॉलीवुड ने भी इस संस्कृति को जमकर अपनाया। सन् 1975 में आई फिल्म चुपके-चुपके का गाना अब के बरस सावन में हो या 1967 की बहू बेगम का झूले वाला गीत, ये गाने आज भी पुराने सावन की याद ताजा कर देते हैं।

परंपराएं बनती जा रही हैं इतिहास

बदलते दौर ने सावन के रंग को फीका कर दिया है। न अब वह हरियाली बची है, न ही वह मौसमी उल्लास। गांवों में न तो अब पेड़ों पर झूले दिखाई देते हैं, न ही गली-मोहल्लों में सावनी गीत सुनाई देते हैं। बच्चों के लिए अब झूले नहीं, वीडियो गेम अधिक प्रिय हैं। महिलाएं अब टीवी सीरियल और मोबाइल फोन में खोई रहती हैं।

खुदौली गांव के बुजुर्ग ताराराम निषाद बताते हैं कि पहले सावन आते ही बांस काटकर झूले बनाए जाते थे, पटरे तैयार किए जाते थे, और डालियों पर टायर से उन्हें बांधा जाता था। महिलाएं झूला झूलते हुए कजरी गातीं, और उन पलों को जीवन भर याद रखती थीं।

84 वर्षीय सुमित्रा देवी कहती हैं, अब वह पेड़ कहां हैं? वह लोग कहां हैं? सावन में रोपाई के समय महिलाएं गीत गाकर थकान भुला देती थीं, लेकिन अब वह परंपरा भी लुप्त होती जा रही है।

प्रकृति से कटाव और परंपराओं का क्षरण

वैश्वीकरण और निर्माण की गति ने गांवों के पेड़ों, बाग-बगिचों, और खुली जगहों को निगल लिया है। बांस, पेड़ और संसाधन न मिलने के कारण झूला डालना अब असंभव हो गया है। कुछ परिवार रेडीमेड झूला खरीद कर घरों में संतोष कर लेते हैं, परंतु उसमें न वह सामाजिक मेलजोल है, न वह लोक-रस। इसके साथ ही, रील्स और सोशल मीडिया की दुनिया में लोग सावन के सार्वजनिक आनंद की जगह व्यक्तिगत मनोरंजन तक सीमित हो गए हैं।

सांस्कृतिक चेतना का क्षरण

आज सावन का महीना आता तो है, लेकिन उसका एहसास कहीं नहीं होता। पहले सावन केवल एक मौसम नहीं था, वह एक भावना, एक अनुभूति, और एक जीवंत संस्कृति का प्रतीक था। आज की युवा पीढ़ी उस संस्कृति से अपरिचित होती जा रही है। सवाल यह है कि क्या हम इस सांस्कृतिक विरासत को पुनः संजो पाएंगे? क्या आधुनिकता के साथ परंपरा का समन्वय संभव है?

यदि यह रुझान ऐसे ही जारी रहा तो निकट भविष्य में सावन, कजरी, मेंहदी, झूले और हरियाली तीज केवल किताबों और बुजुर्गों की यादों में सिमट कर रह जाएंगे। यह न केवल परंपराओं का नुकसान है, बल्कि संस्कृति और प्रकृति से हमारे जुड़ाव का भी ह्रास है। यह समय है चेतने का, संस्कारों को पुनर्जीवित करने का, और सावन के बहाने सामाजिक और पारिवारिक मेलजोल को फिर से मजबूत करने का। वरना, सावन केवल एक तारीख बनकर रह जाएगा बिना उस उमंग और खुमारी के, जिसकी पहचान वह कभी था।

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