Thursday, November 21, 2024
Homeसंपादक की कलमप्रसाद जी के काव्य का सांगीतिक तत्व

प्रसाद जी के काव्य का सांगीतिक तत्व

साहित्य संगीत ,कला ,दर्शन ,एवं अध्यात्म की सरजमीं काशी में पैदाइशी परवरिशआफ्ता, छायावाद की बुनियाद से जुड़े उसके आधार स्तंभ के मानिंद जयशंकर प्रसाद जी यकीनन साहित्य संगीतकला और दर्शन की त्रिवेणी हैं। उनकी रचनाओं में जिंदगी की तमाम चीजें शामिल हैं -प्रेम,सौन्दर्य वतनपरस्ती, कुदरत से मुहब्बत, फ़लसफ़ा, रहस्यानुभूति, वगैरह मुख्तलिफ चीजों को लेकर खूबसूरत और खुशनुमा अंदाज़ के‌ साथ अपने काव्य प्रेमियों से रू-ब-रू हुए। प्रसाद जी का भाव एवं भाषा-शैली, क़दीम हिंदुस्तानी तहजीब,तर्बियत, इखलाक व सलाहियत की वज़ह से बहुत ही पुरअसर है। प्रेम और आनंद के कवि होने की वजह से हुस्न और इश्क, हिज्रोविशाल, तन्हाई, पुर दर्द जुदाई, गमजदा के अश्कों का बड़ी कशिश और सिद्दत के साथ लाने की वजह से प्रसाद जी कालजयी साबित हुए।

प्रसाद जी की प्रबल काव्य -भावना संगीतात्मकता और प्रगीतात्मकता से पूर्ण रूप से प्रभावित है। उनके मुक्त छंद का अपना अलग कायदा है,उसका अपना एक अलग दायरा है जो पुरानी काव्य परम्परा से ज़रा हट के है।उसे छंदहीन और बेलय समझना हमारे कुंठित संगीत-बोध का सबूत हो सकता है। तुकबंदी की कमी, चरणों की मात्राओं में असमानता होते हुए उनके काव्य की आत्मा लय से पोषित है।लय संगीत का पिता है -श्रुति:माता लय: पिता। बन्धनों से निजात संगीत और काव्य की खूबसूरती को बरकरार रखने में मददगार साबित हो ता है –

“नूपुर के स्वर मन्द रहे,जब तक न चरण स्वच्छंद रहे।”

छायावादी कवियों की  मंजुल शब्द- रचना और संगीत के तालमेल के विषय में डॉ.नामवर सिंह का‌ ख़याल सटीक बैठता है -“छायावादी कवि के जिस हृदय स्पंदन ने वाक्य-विन्यास को प्रभावित किया, उसी वाक्य -विन्यास के माध्यम से छंदो -विधान का भी निश्चय हुआ। छायावाद का यह हृदय स्पंदन मुख्यतः प्रगीत-भावना ( लिरसिज्म) थी। छायावादी छंदों में से अधिकांश का निश्चय प्रगीत-भावना ने किया।”

प्रसाद जी ने अपनी आजाद ज़ेहन की वजह से कई खूबसूरत रचना फारसी बहर में भी लिखा है –

१-विमल इन्दु की विशाल किरणें, प्रकाश तेरा बता रही हैं।

२-न छेड़ना उस अतीत स्मृति के, खिंचे हुए बीन तार को कोकिल।

कुछ रचनाएं लोक छंद आल्हा और लावनी के अधिक नजदीक हैं-

“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह,

एक पुरुष भीगे नैनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।”

कामायनी महाकाव्य में ३०,३१,३२ मात्राओं के छंदों का इस्तेमाल प्रसाद जी की आजाद ज़ेहन और नए अंदाज की गवाही देता है। ऐसे छंदों को तीन ताल और कहरवा ताल में आसानी से गाया -बजाया जा सकता है। “लहर “, काव्य -संग्रह (१९३५) की कविताओं  से उनके सांगीतिक ज्ञान और शास्त्रीय राग -रागिनी के इल्म की मुकम्मल जानकारी मिलती है -“बीती विभावरी जाग री!” जैसे जागरण गीत का आखिरी हिस्सा मिसाल के तौर पर देखा जा सकता है –

“अधरों में राग अमंद पिये, अलकों में मलयज बंद किये,

तू अब तक सोई है आली, आंखों में भरे विहाग री।”

मतलब,भोर हो गई है।भैरव/भैरवी राग की मस्ती में जागने के बजाय रात्रि के द्वितीय प्रहर में गाए जाने वाले राग विहाग के स्वरों की खुमारी अपनी आंखों में संजोए हुए हेआली!तू अब तक सो रही हो?

छायावादी काव्य के शब्द -रचना और संगीत के सम्बन्ध में निराला जी का विचार औचित्य पूर्ण है-

“एक -एक शब्द बंधा ध्वनिमय साकार”(मेरे गीत और कला)

इन बातों के पोषण में डॉ. नामवर सिंह ने भी यही कहा है -“शब्द -रचना और संगीत का जहां तक संबंध है, छायावादी कवियों ने अलग-अलग एक-एक शब्द के संगीत पर ध्यान रखने के साथ ही संपूर्ण शब्द- संगति अथवा शब्द- गुम्फन के संगीत पर भी ध्यान रखा। शब्द -संगति बैठाने में इन कवियों ने स्वर अथवा व्यंजन संबंधी अनुप्रास का सहारा लिया है।”

मसलन -“खग -कुल कुल- कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा।”

छायावादी गीत काव्य को पूर्णता प्रदान करने में प्रसाद जी की अदबी खिदमात काबिले तारीफ है। झरना, लहर एवं उनके नाटकों के गीत काव्य चरमोत्कर्ष पर हैं।

प्रसाद जी के गीतों को दो हिस्सों में तक्सीम किया जा सकता है-संगीत प्रधान गीत और साहित्यिक गीत। उनके नाटकों के ज्यादातर गीत शास्त्रीय राग- रागिनी संयुक्त हैं। गीतों में स्वरों का भावानुरूप उतार-चढ़ाव रस को उत्कर्ष देते हैं –

ध्रुवस्वामिनी नाटक के प्रथम दृश्य में मंदाकिनी के स्वर में वेदना की आत्माभिव्यक्ति,रागात्मक अनुभूति, लयात्मक अनुभूति से कवि की संगीतात्मकता का सुबोध होता है –

“यह कसक अरे आंसू सह जा।

बनकर विनम्र अभिमान मुझे, मेरा अस्तित्व बता रह जा।

बन प्रेम छलक कोने-कोने, अपनी नीरव गाथा कह जा।

करुणा बन दुखिया वसुधा पर, शीतलता फैलाता बह जा।

निश्चित तौर पर भाषा की कोमलता कारुणिक संगीत में श्री वृद्धि करती हुई नजर आती है। स्कंधगुप्त नाटक में देवसेना को भ्रम था की स्कंधगुप्त भी उससे मोहब्बत करता है इसी भ्रम में अपना सब कुछ लुटा कर उससे प्रेम करती है जिसका अंजाम बड़ा ही पुरदर्द और अफसोस से भरा है-

“आह! वेदना मिली विदाई।

चढ़कर मेरे जीवन रथ पर, प्रलय चल रहा अपने पथ पर,

मैंने निज दुर्बल पद- बल पर, उससे हारी- होड़ लगाई।”

ध्रुवस्वामिनी नाटक में मंदाकिनी का पीड़ा दरकिनार करके, बाधाओं को ठुकराते हुए, कष्टों को झेलते हुए हर हाल में कामयाबी हासिल करने के सुंदर पैगाम को कहरवा अथवा तीन ताल की संगत से बखूबी प्रतिष्ठा मिल सकती है-“यत: ताले प्रतिष्ठितम्।

“पैरों के नीचे जलधर हो, बिजली से उनके खेल चलें ।

संकीर्ण कगारों के नीचे, शत् शत् झरने बेमल चलें।।

पीड़ा की धूल उड़ाता सा, बाधाओं को ठुकराता -सा।

कष्टों पर कुछ मुस्काता-सा, ऊपर ऊंचे सब झेल चले।।”

प्रेम और आनंद के कवि होने के कारण प्रेमभाव का मनोवैज्ञानिक बहुविधि निरूपण संयोग और विप्रलंभ का समादर, भावों की तीव्रता और मूर्तता दर्शनीय है। चंद्रगुप्त की फरमाइश पर मालविका के द्वारा गाए गए गीत की पारदर्शिता अवलोकनीय है-

“मधुप कब एक कली का है!

पाया जिसमें प्रेम रस सौरभ और सुहाग,

बेसुध हो उस कली से मिलता भर अनुराग।

बिहारी कुंज गली का है।

पद विन्यास के सहारे जहां और कवि सीधी-सपाट कविता लिखतें हैं वहीं प्रसाद जी नये तरतीब और नए अंदाज से खूबसूरती पैदा कर देते हैं। ध्रुवस्वामिनी नाटक में नर्तकियों का गायन काबिले गौर है-

“अस्ताचल पर युवती संध्या की खुली अलक घुंघराली है।

लो, मानिक मदिरा की धारा अब बहने लगी निराली है।।

भरने निकले हैं प्यार भरे जोड़े कुंजों की झुरमुट से।

इस मधुर अंधेरी में क्या अब तक इनकी प्याली खाली है।।

प्रसाद जी के गीतों में जहां करुणा मूलक,प्रेमपरक सौंदर्य परक और नवजागरण के गीतों का शुमार है वही देश की अतीत गरिमा का गान, उद्बोधन गीत और प्रयाण गीत से उनकी प्रगीतात्मकता का परिचय मिलता है। भारत की सांस्कृतिक गरिमा का दर्शन विदेशी राजकुमारी सेल्युकस की पुत्री अथवा चंद्रगुप्त की पत्नी कार्नेलिया के द्वारा गाया‌ गया गीत भारत की गरिमा और उसकी गौरवशाली परंपरा के अनुकूल और अनुरूप है –

“अरुण यह है मधुमय देश हमारा।

जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

बरसाती आंखों के बादल बनते जहां भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहां किनारा।।”

चंद्रगुप्त नाटक के चतुर्थ अंक में अलका के स्वर में प्रसाद जी ने अहले -वतन को आलस्य और अकर्मण्यता की नींद से जगा कर आजादी के वास्ते विजयपथ पर प्रयाण का इशारा करते हैं जो दादरा ताल में निबद्ध एक खूबसूरत प्रयाण गीत का नमूना है –

“हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती –

अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,

प्रशस्थ पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो।।

मुख्तसर रूप में, प्रसाद जी की रचना में जो संगीत तत्त्व या फ़िर प्रगीत-भावना है वह उनकी निजता और नये अंदाज़ का खूबसूरत आईना है जिसमें तमाम छायावादी खूबियां‌‌ साफ़ -साफ़ झलकती नज़र आती हैं। डॉक्टर द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार,”इनकी अपनी निजी तान है, निजी लय है, निजी स्वर है, निजी ताल है और निजी बंधन है। इसी कारण यह प्रगीत कहलाते हैं। ये प्रगीतात्मक कविताएं विविध  नूतन राग रागिनियां प्रस्तुत करती हैं, मांसल एवं सौंदर्य के निरूपण में मादक अनुरक्ति के स्वर अभिव्यक्ति करती हैं, भावोच्छवास की गंभीर विह्ललता को कोमल लय में‌ अंकित करती हुई पाठकों एवं श्रोताओं को अपनी लय में लीन करने की पूर्ण सामर्थ्य प्रकट करती हैं।”

 –  प्रेम नाथ सिंह ” चंदेल “

 एम.ए.(हिंदी, संस्कृत,संगीत)

श्री गांधी स्मारक इंटर कॉलेज समोधपुर जौनपुर।

LATEST ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments