Friday, June 27, 2025
Homeसंपादक की कलमहिंदी पत्रकारिता दिवस:कलम की पहली चिंगारी से आज के जनमत तक

हिंदी पत्रकारिता दिवस:कलम की पहली चिंगारी से आज के जनमत तक

Hindi Journalism Day: From the first spark of the pen to today’s public opinion

हिंदी पत्रकारिता दिवस का दिन न केवल एक ऐतिहासिक घटना की स्मृति है, बल्कि यह अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक जागरूकता और जनमानस के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ी गई एक लंबी लड़ाई का प्रतीक भी है। 30 मई 1826 को प्रकाशित हुए उदन्त मार्तण्ड ने जब हिंदी में पहली बार समाचारों की दुनिया में प्रवेश किया, तब शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह प्रयास आगे चलकर एक संपूर्ण परंपरा, एक आंदोलन और एक चेतना में रूपांतरित होगा। उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन कोलकाता से हुआ था, जहाँ हिंदी भाषी जनता बहुत कम थी, फिर भी पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने एक नया रास्ता चुना- ऐसा रास्ता जिस पर न संसाधन थे, न समर्थन और न ही सत्ता की सहानुभूति। अंग्रेजी और बंगाली के वर्चस्व वाले समाचार जगत में हिंदी को स्थान दिलाने का उनका प्रयास उस समय एक सामाजिक और भाषाई साहस था। यह पत्र लंबे समय तक नहीं चल सका, लेकिन जो विचार उस दिन अंकित हुआ, वह इतिहास में स्थायी रूप से दर्ज हो गया।

आज जब हम हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाते हैं, तो यह केवल एक भाषाई शुरुआत का उत्सव नहीं है, बल्कि यह उस विचारधारा का स्मरण भी है जो जनता को सूचना से सशक्त करने की बात करती है। आज़ादी के आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता ने अग्निशिखा की तरह काम किया। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू बाल मुकुंद गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने अपनी लेखनी से ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला दी। उनकी कलम जनता की आवाज़ बनी, और अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आक्रोश और आत्मसम्मान का प्रतीक भी। स्वतंत्रता के बाद हिंदी पत्रकारिता ने लोकतंत्र को आकार देने में निर्णायक भूमिका निभाई। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने जनता को सच से परिचित कराने, सत्ता से सवाल पूछने और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने में योगदान दिया। गांव, कस्बों और छोटे शहरों की समस्याएँ हों या देशव्यापी आंदोलन- हिंदी पत्रकारिता ने उन्हें मंच देने का काम किया। परंतु बीते दो दशकों में इस पेशे की दिशा और दृष्टि में व्यापक बदलाव आए हैं।

वर्तमान हिंदी पत्रकारिता एक गहरे संक्रमण से गुजर रही है। एक ओर पत्रकारिता में डिजिटल क्रांति आई है, जिसने सूचनाओं को त्वरित और सुलभ बनाया है, तो दूसरी ओर इसने सूचना की विश्वसनीयता और गहराई को गंभीर संकट में भी डाला है। सोशल मीडिया, यूट्यूब चैनल, और न्यूज़ ऐप्स के ज़रिए खबरों की दौड़ में शामिल संस्थान तथ्यों की पुष्टि से पहले ‘सबसे पहले’ पहुँचने की होड़ में लगे हैं। नतीजतन, अफवाहें, भ्रामक हेडलाइन और अधूरी रिपोर्टिंग अब सामान्य होती जा रही है।।एक और चिंताजनक पहलू है- राजनीतिक और कॉरपोरेट प्रभाव। आज अनेक समाचार माध्यम या तो प्रत्यक्ष रूप से किसी राजनीतिक दल या कॉरपोरेट समूह के स्वामित्व में हैं या फिर उनके आर्थिक दबाव में काम कर रहे हैं। इससे पत्रकारिता की निष्पक्षता और स्वतंत्रता दोनों प्रभावित हो रही हैं। जब मीडिया संस्थान विज्ञापनदाताओं या राजनीतिक आकाओं की आलोचना से बचते हैं, तब पत्रकारिता लोकतंत्र की सेवा करने के बजाय उसकी सीमाओं को सीमित करने लगती है।

इसके साथ ही पत्रकारों की सुरक्षा और आज़ादी भी चिंता का विषय बनी हुई है। रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पत्रकारों पर हमले, गिरफ्तारी और हत्या के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। कई पत्रकार, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले, भ्रष्टाचार, अवैध खनन या सांप्रदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग करते समय हिंसा और दमन का शिकार हो रहे हैं। जहाँ एक ओर संकट के ये बादल मंडरा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। हिंदी पत्रकारिता में आज कई साहसी और संवेदनशील पत्रकार हैं जो ज़मीन से जुड़ी रिपोर्टिंग कर रहे हैं, और सत्ता के सामने सच को निर्भयता से रख रहे हैं। क्षेत्रीय पोर्टल, स्वतंत्र मीडिया संगठन और कई युवा पत्रकार आज भी उस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं जो उदन्त मार्तण्ड से शुरू हुई थी।

आज की तारीख में पत्रकारिता को जितनी आज़ादी की ज़रूरत है, उतनी ही उत्तरदायित्व की भी। सूचना केवल देने का माध्यम नहीं है, बल्कि सामाजिक चेतना को दिशा देने का साधन भी है। जब पत्रकारिता तथ्य, विवेक और संवेदना के साथ काम करती है, तब वह जनता को सशक्त बनाती है। लेकिन जब वही पत्रकारिता केवल टीआरपी, क्लिक या राजनीतिक स्वार्थों का उपकरण बन जाती है, तब वह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाती है। हिंदी पत्रकारिता दिवस हमें याद दिलाता है कि पत्रकारिता सिर्फ पेशा नहीं, एक मिशन है। यह लोकतंत्र की आत्मा है- जो न केवल शासन से, बल्कि समाज से भी ईमानदारी की माँग करती है। इस दिन हमें उन सभी पत्रकारों को याद करना चाहिए जिन्होंने सत्ता की परवाह किए बिना सच को कहा, लिखा और जिया। साथ ही, आज के पत्रकारों को यह भी आत्ममंथन करना चाहिए कि वे पत्रकारिता को एक सेवा समझते हैं या एक साधन।

आज जब तकनीक, बाज़ार और सत्ता तीनों पत्रकारिता को अपनी सीमाओं में बाँधने की कोशिश कर रहे हैं, तब ‘उदन्त मार्तण्ड’ की वह पहली पुकार हमें फिर याद दिलाती है कि पत्रकारिता का अंतिम उत्तरदायित्व जनता के प्रति है- न कि सरकार, कॉरपोरेट या किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति। यह दिवस महज़ अतीत की महिमा का गुणगान नहीं, बल्कि भविष्य की पत्रकारिता के लिए एक नैतिक दिशा तय करने का अवसर भी है। यही इसकी सार्थकता है।

लेखक: अज़ीम सिद्दीकी (पत्रकार)
खेतासराय-जौनपुर
azim3027@gmail.com

LATEST ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments