1980 में सजा था पहला पंडाल, आज 87 से ज्यादा स्थानों पर होती है भव्य पूजा
खेतासराय (जौनपुर): गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए विख्यात जौनपुर सिर्फ इतिहास और शिक्षा की धरती नहीं है, बल्कि इसकी सांस्कृतिक धड़कन भी दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाए हुए है। इन्हीं सांस्कृतिक परंपराओं में शारदीय नवरात्रि की दुर्गा पूजा विशेष महत्व रखती है। जिले में सजने वाले भव्य पंडाल न केवल धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक उत्सव का भी संदेश देते हैं।
1973 से हुई शुरुआत, बंगाल की तर्ज पर सजा पहला पंडाल
जिले में सार्वजनिक दुर्गा पूजा की परंपरा वर्ष 1973 से शुरू हुई। पश्चिम बंगाल की तर्ज पर नवयुग संस्था, उर्दू बाजार (टैगोर नगर) ने गोसाई रामलीला मैदान में पहला सार्वजनिक पंडाल स्थापित किया। इससे पहले दुर्गा पूजा केवल स्टेशन रोड स्थित वरिष्ठ अधिवक्ता दीपक-डे के घर तक सीमित थी। समाजसेवी रामचंद्र नवीन के नेतृत्व में बनी इस संस्था ने नाट्य मंचन की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नौ दिनी दुर्गा पूजा का आयोजन शुरू किया। वाराणसी से मां दुर्गा की प्रतिमा लाई गई और शहर के बुद्धिजीवियों डॉ. श्रीपाल सिंह क्षेम, डॉ. देवेंद्र उपाध्याय, डॉ. अरुण कुमार सिंह, रामकृष्ण, कन्हैया लाल शर्मा सहित कई विद्वानों ने मिलकर इसकी नींव रखी। प्रशासनिक दिक्कतें भी आईं, लेकिन तत्कालीन डीएम ओ.एन. वैद्य ने अनुमति देकर इस ऐतिहासिक शुरुआत को रास्ता दिया।
1974 से बढ़ा विस्तार, बनी दुर्गा पूजा महासमिति
1974 में गीतांजलि संस्था ने अध्यक्ष हबीब आलम खान के नेतृत्व में जागेश्वर नाथ मंदिर में सार्वजनिक पूजा की शुरुआत की। इसके बाद पूरे जनपद में तेजी से पंडाल सजने लगे। 1979 तक यह संख्या चार दर्जन के करीब पहुंच गई।
उसी दौर में विवादों और चुनौतियों का सामना भी हुआ, लेकिन 1979 में जागेश्वर नाथ मंदिर परिसर में हुई बैठक से दुर्गा पूजा महासमिति का गठन हुआ। तभी से महासमिति सभी समितियों को प्रशासनिक सहयोग दिलाने और दशमी की शोभायात्रा के आयोजन की जिम्मेदारी निभा रही है। आज विजयादशमी पर लाखों की भीड़ मूर्तियों के विसर्जन की इस परंपरा को देखने उमड़ती है।
खेतासराय में 1980 से हुई शुरुआत
शहर के बाद 1980 में शाहगंज सर्किल के अंतर्गत आने वाले खेतासराय कस्बे ने भी इस परंपरा को अपनाया। यहां श्री नवयुवक दुर्गा पूजा समिति ने पहला पंडाल सजाया। इसकी नींव कस्बा के तत्कालीन सरपंच स्व. किशोरी लाल गुप्ता ने रखी।
डॉ. अमलेन्द्र गुप्ता बताते हैं, मेरे पिता जी बनारस से मूर्तिकार निर्मल दास के पास से प्रतिमा लाए थे। यह पंडाल अपनी भव्यता और प्राकृतिक सजावट के लिए पूरे इलाके में चर्चित रहा। इसके बाद धीरे-धीरे और समितियां बनीं और खेतासराय दुर्गा पूजा का प्रमुख केंद्र बन गया।
बंगाल के कारीगरों से लेकर स्थानीय कलाकारों तक
शुरुआती वर्षों में मूर्तियां मऊ और घोषी से आती थीं। बढ़ती मांग को देखते हुए किशोरीलाल गुप्ता ने मूर्तिकारों को सीधे खेतासराय बुलाकर यहीं मूर्तियां बनवानी शुरू कराई। इसके बाद पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद निवासी उत्तम पाल कस्बे से जुड़ गए और आज भी निरंतर प्रतिमाएं बनाते आ रहे हैं। पंडालों की सजावट और मूर्तियों की भव्यता समय के साथ बढ़ती गई। कोविड-19 के दौरान जरूर रुकावट आई, लेकिन पूजा समितियों ने नियमों के अनुरूप छोटे पंडालों में भी परंपरा को जीवित रखा।
हर साल सैकड़ों पंडाल, सांस्कृतिक एकता का प्रतीक
खेतासराय में वर्तमान समय में 87 पंडाल सजते हैं, जिनमें से 25 से अधिक नगर क्षेत्र में और शेष ग्रामीण इलाकों में होते हैं। सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन यहां का वातावरण अद्भुत हो जाता है। घंटों की गूंज, मंत्रोच्चार और भव्य आरती के बीच हजारों श्रद्धालु दूर-दराज से पहुंचते हैं। नगर की जय मां विंध्यवासिनी दुर्गा समिति अपनी भव्य सजावट के लिए विशेष पहचान बना चुकी है और कई बार महासमिति से सम्मान भी पा चुकी है।
सिर्फ पूजा नहीं, सांस्कृतिक मिलन का अवसर
जौनपुर और खेतासराय की दुर्गा पूजा अब सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं रह गई है। यह सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन का अवसर बन चुकी है। अलग-अलग समुदायों और वर्गों के लोग इस उत्सव में सम्मिलित होते हैं, जिससे गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल और मजबूत होती है। थाना प्रभारी रामाश्रय राय ने बताया, इस बार खेतासराय थाना क्षेत्र के अंतर्गत कुल 87 पंडालों की सजावट प्रशासन की पूरी निगरानी में आयोजन होंगे।
गौरव की परंपरा
खेतासराय और जौनपुर की सार्वजनिक दुर्गा पूजा न केवल श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी अपनी पहचान बनाए हुए है। यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों को न केवल धर्म से जोड़ती है, बल्कि सामाजिक एकता और भाईचारे का भी संदेश देती है।