राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ ठाकुर:भारतीय आत्मा के स्वर और विश्व चेतना के सेतु

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राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ ठाकुर
राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ ठाकुर

भारत के सांस्कृतिक इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो न केवल अपने युग को आकार देते हैं, बल्कि युगों के पार जाकर आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकाशस्तंभ बनते हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ऐसे ही विराट व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी जयंती (7 मई) केवल एक कवि के जन्मदिवस की याद नहीं है, बल्कि यह भारतीय आत्मा के पुनर्जागरण, सांस्कृतिक स्वाभिमान और वैश्विक मानवीयता की पुनः पुष्टि का दिन है। जिसने भारतीय साहित्य, संस्कृति और राष्ट्र चेतना को एक नया स्वर और दिशा दी, वह हैं गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, जिन्हें विश्व आज रवींद्रनाथ टैगोर के नाम से जानता है। उनका जीवन केवल एक साहित्यकार की नहीं, बल्कि एक विचारक, शिक्षक, देशभक्त और मानवतावादी की जीवंत गाथा है।

रवींद्रनाथ ठाकुर ने वर्ष 1913 में गीतांजलि नामक काव्यसंग्रह के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। यह न केवल उनकी साहित्यिक प्रतिभा की मान्यता थी, बल्कि एशिया के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था। वे पहले एशियाई व्यक्ति थे जिन्हें यह वैश्विक सम्मान प्राप्त हुआ। यह उपलब्धि उस समय के भारत के लिए एक सांस्कृतिक गर्व का विषय थी, जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। उनके शब्दों में गूंजती आत्मा की पुकार, शांति, प्रेम और आध्यात्मिकता ने पश्चिमी जगत को भारतीय चिंतन की गहराई से परिचित कराया। उनकी लेखनी ने कविता, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक और निबंध जैसे सभी साहित्यिक विधाओं को समृद्ध किया। उन्होंने 2000 से अधिक गीतों की रचना की, जिन्हें आज रवींद्र संगीत के रूप में जाना जाता है। उनकी रचनाएँ केवल कलात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और मानवीय संवेदना से ओतप्रोत हैं।

उनकी रचना जन गण मन आज भारत का राष्ट्रगान है, जबकि बांग्लादेश का राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला भी उन्होंने ही लिखा। यह दुर्लभ सम्मान है कि एक ही व्यक्ति दो देशों के राष्ट्रगान का रचयिता हो। औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली से संतुष्ट नहीं थे। वे शिक्षा को जीवन से जोड़कर देखना चाहते थे। एक ऐसी शिक्षा जो रटने की बजाय सोचने की प्रेरणा दे, और परीक्षा की जगह प्रयोग को बढ़ावा दे। इसी उद्देश्य से उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की, जो आगे चलकर विश्वभारती विश्वविद्यालय बना। यह संस्था आज भी उनके वैकल्पिक शिक्षा दर्शन की जीती-जागती मिसाल है।

रवींद्रनाथ ठाकुर का राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं था, बल्कि व्यापक और मानवीय था। जब जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ, तो उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दिया गया नाइटहुड सम्मान लौटा दिया। यह उनका विरोध का गांधीवादी तरीका था- नैतिक और शांतिपूर्ण। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ वैश्विक भाई-चारे का भी संदेश मिलता है। वे मानते थे कि मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है। उनका दृष्टिकोण संकीर्ण राष्ट्रवाद की सीमाओं से ऊपर उठकर समस्त विश्व को एक परिवार मानने वाला था।

वर्तमान समय मे जब हमारा समाज फिर से असहिष्णुता, सामाजिक विषमता और सांस्कृतिक विस्मरण की ओर बढ़ रहा है, रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। हमें उनकी रचनाओं को केवल पुस्तकों और समारोहों तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि उनके विचारों को जीवन और नीतियों में उतारना चाहिए।

निष्कर्षत गुरुदेव की अमर वाणी हमें सिखाती है- जहाँ मन भयमुक्त हो, और मस्तक गर्व से ऊँचा उठे,
जहाँ ज्ञान स्वतंत्र हो, जहाँ दुनिया संकीर्ण दीवारों से न बंटी हो…यही वह भारत है, जिसकी कल्पना उन्होंने की थी। उनकी जयंती पर हम उन्हें केवल स्मरण न करें, बल्कि उनके आदर्शों को अपनाकर एक सशक्त, संवेदनशील और सृजनशील राष्ट्र के निर्माण का संकल्प लें।

गुरुदेव को शत्-शत् नमन!

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