भारत में संसदीय आवश्यकता और न्यायिक सर्वोच्चता की लड़ाई

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मौसम:2दिन शादी विवाह मांगलिक कार्य करने वाले सावधान रहे
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भारत में संसदीय आवश्यकता और न्यायिक सर्वोच्चता की लड़ाई -डॉ दिलीप कुमार सिंह डिफेंस काउंसिल जनपद न्यायालय जौनपुर

भारत का संविधान लिखित है आकार की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा संविधान है और दुनिया के हर संविधान से कुछ न कुछ उधार लेकर इस विराट संविधान का निर्माण किया गया है जो दो वर्ष से अधिक समय में तैयार हुआ है इसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर थे जब की संविधान सभा के अध्यक्ष भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद थे इस संविधान के निर्माण में हर क्षेत्र के दिग्गज लोगों ने भाग लिया था

भारत के संविधान निर्माण के समय ही यह पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया गया था कि संविधान के आधारभूत ढांचे में मूलभूत परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और मूल अधिकारों को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है इसके साथ ही साथ यह भी कहा गया था कि संसद पूरी तरह से सर्वोच्च रहेगी क्योंकि यह जनता के द्वारा चुनी गई है और लोकतंत्र में जनता ही सबसे बड़ी होती है बहुत दिनों तक यह विवाद चला रहा कि भारत में कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका में कौन श्रेष्ठ है

इस बात को स्पष्ट करते हुए पूरी तरह से संविधान की प्रस्तावना में कहा गया था कि हम भारत के लोग अर्थात जो भारत के लोग हैं जो वहां की जनता है वही कार्यपालिका व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के साथ-साथ संविधान की भी आधारभूत शक्ति है ना तो कार्यपालिका न तो न्यायपालिका न तो विधायक का श्रेष्ठ है बल्कि सबसे श्रेष्ठ संविधान है क्योंकि सारे तंत्र इसी से अपनी शक्तियां प्राप्त करते हैं और क्योंकि संविधान अपनी शक्ति खुद ही जनता से प्राप्त करती है इसलिए भारत की जनता सबसे श्रेष्ठ है यही इसमें पूरी तरह से स्पष्ट रूप से कहा भी गया है शक्तियों का पृथक्करण सिद्धांत प्रतिपादित करके पूरी तरह से बता दिया गया है कि तीनों तंत्र अलग हैं अपने में स्वतंत्र हैं और अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोच्च हैं लेकिन क्योंकि संसद को कानून बनाने की और संविधान में संशोधन की अपार शक्तियां प्राप्त हैं इसलिए बिना किसी संदेह के संसद ही सर्वोच्च है लेकिन इस बात पर स्वतंत्रता के बाद से आज तक की लड़ाई लगातार जारी है और मजे की बात यह है कि कभी कार्यपालिका की लड़ाई ना तो न्यायपालिका से हुई और ना तो कार्यपालिका की लड़ाई आज तक संसद से हुई है

अगर देखा जाए तो न्यायपालिका की सर्वोच्चता और संसदीय परम सत्ता के मूल में दोनों तंत्र की अति महत्वाकांक्षा और एक दूसरे के ऊपर हावी होने का असंवैधानिक प्रयास है लेकिन इधर के वर्षों में न्यायिक सक्रियता इतनी अधिक बढ़ गई है कि न्यायपालिका सारी शक्तियां अपने हाथ में लेकर कार्यपालिका व्यवस्थापिका को जिस तरह आदेश निर्देश दे रहे हैं और देश के सर्वोच्च सत्ता संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति और राज्यपाल के प्रति उसका हाल में दिया गया जो निर्देश है वह उसको अति महत्वपूर्ण संस्था के रूप में स्थापित करने का एक असाधारण प्रयास है

सांसद और न्यायपालिका का टकराव कोई नई बात नहीं है उनके मूल में उच्च न्यायालय में संविधान का अनुच्छेद 226 227 और सर्वोच्च न्यायालय के मूल में अनुच्छेद 32 और 136 142 और 368 अनुच्छेद हैं जिनका मनमानव व्याख्या करके इस समय न्यायपालिका अपने सर्वोच्च स्थान पर पहुंच गए हैं और विधायक का तथा कार्यपालिका उसके आगे असहाय दिख रही है इस बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह निर्णय दिया गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अगर किसी विधेयक पर 3 महीने तक निर्णय नहीं लेते तो वह विधायक अपने आप पारित माना जाएगा अगर संसद भी इसी तरह प्रस्ताव पारित करके न्यायपालिका के 6 करोड़ से अधिक लंबित मुकदमों का यह निर्देश दे दे कि अगर यह मुकदमे 1 वर्ष में निर्णीत नहीं हो गए तो इन्हें अपने आप निर्णीत माना जाएगा तब आप समझ लीजिए कितनी भयंकर और टकराव वाली संवैधानिक स्थिति पैदा होगी

अब हम कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण विवादों का चल अनावरण करते हुए उनकी चर्चा करेंगे जिसमें समय-समय पर विधायक प्रभु सत्ता और न्यायिक सर्वोचना की लड़ाई हुई है लेकिन अंतिम स्पष्ट रूप से किसी की प्रभावी सर्वोच्चता और प्रभु सत्ता अभी तक सिद्ध नहीं हो सकी है‌।

भारत के इतिहास के सांसद और न्यायपालिका के बीच के सर्वाधिक चर्चित मामले न्यायिक नियुक्ति आयोग गोलकनाथ नाम बिहार राज्य मिनर्वा मिल्स बनाम बिहार राज्य केशवानंद भारती का विवाद है जिनकी इस समय खूब चर्चा हो रही है इस पर न्यायपालिका ने क्या कहा वह भी आपको हम बताते हैं

केशवानंद भारती विवाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया कि संसद को संविधान के मूल ढांचे को बदलने का अधिकार नहीं है लेकिन यही सर्वोच्च न्यायालय तक बिल्कुल मौन रह गया जब संविधान की गरिमा और न्यायिक प्रक्रिया तथा संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को ही बदल दिया गया और उसमें जबरदस्ती समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द जोड़कर संविधान का मजाक बनाया गया जबकि प्रस्तावना संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अंग है जिस संविधान की कुंजी या संविधान की आत्मा भी कहा जाता है उसे समय सर्वोच्च न्यायालय पूरी तरह से खामोश रहा जब इंदिरा गांधी के द्वारा आपातकाल लगाया गया और न्यायाधीशों की वरिष्ठता को जानबूझकर अंडे देखा करते हुए जूनियर न्यायाधीश को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया और और जैसे चर्चित मामलों में सांसद ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की गरिमा तारतार कर दिया 42वां और 44 वां संशोधन की न्यायपालिका के मुंह पर एक जोरदार तमाचा से भी बढ़कर है अगर उसे समय न्यायपालिका की सक्रियता आज की तरह आई होती तो लोग बिना कहे ही उसको अपना समर्थन दे देते।

इसी तरह गोलकनाथ विवाद मिनर्वा मिल्स विवाद राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विवाद और अन्य बड़े-बड़े बिंदुओं पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि संविधान की व्याख्या करने और उसकी सुरक्षा करने का एकमात्र अधिकार केवल और केवल सर्वोच्च न्यायालय को है और इसकी सुरक्षा और व्याख्या के लिए सर्वोच्च न्यायालय कोई भी कदम उठाने के लिए स्वतंत्र है शाहबानो प्रकरण में भी ऐसा ही कुछ था जब स्वर्गीय राजीव गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की ऐसी की तैसी करते हुए उसको पलटकर संविधान संशोधन कर दिया केजरीवाल के मामले में भी ऐसा कुछ हुआ था आपातकाल लागू करते समय इंदिरा गांधी ने संविधान और जजों की एक भी रत्ती भर परवाह नहीं किया और जो कुछ भी मन में आया करती चली गई नेहरू इंदिरा ममता बनर्जी मुलायम सिंह यादव और इस तरह के अन्य लोगों के सामने सर्वोच्च न्यायालय की एक न चली और उसे समय तक पूरी तरह से संसद की प्रमुख सत्ता कायम हो चुकी थी लेकिन जब से मोदी जी ने कार्यभार ग्रहण किया है तब से न्यायिक सक्रियता अपने चरण पर पहुंच गए और लगभग हर बिंदुओं पर संसदीय सर्वोच्चता को चोट पहुंचाई जा रही है कॉलेजियम सिस्टम पर न्यायिक नियुक्ति विधेयक को खारिज करना है इसका उत्तम उदाहरण है इसी तरह वह संशोधन बिल पर भी सर्वोच्च न्यायालय की दिशा संसद से टकराव के बिंदु पर पहुंच गई है।

अब एक बार फिर से सांसद और सर्वोच्च न्यायालय पर वापस आते हैं संविधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संविधान की व्याख्या करने और उसकी सुरक्षा करने का अधिकार अन्य रूप से सर्वोच्च न्यायालय को है और संसद के द्वारा बनाए गए कानूनी की समीक्षा का भी उसे अधिकार है और अगर वह संविधान के मूल ढांचे का अतिक्रमण कर रहे हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उसे पर उचित दिशा निर्देश दे सकता है जबकि संसद का काम कानून बनाने के साथ-साथ संविधान के संशोधन का भी है और संविधान संशोधन का एकमात्र अधिकार संसद के पास है सर्वोच्च न्यायालय के पास नहीं है इसी तरह संसद को न्यायपालिका के सभी प्रकार के निर्णय की समीक्षा का असीमित अधिकार है अगर वह संतुष्ट नहीं है तो किसी भी निर्णय में उचित प्रक्रिया और उचित बहुमत सेवा संशोधन कर सकती है इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय को एक और अधिकार संसद के ऊपर प्राप्त है जिसको न्यायिक पुनर्विलोकन कहा जाता है संविधान के मूल ढांचे के विधायकों के विरुद्ध अधिकार प्राप्त हैं इस प्रकार से भी स्पष्ट है कि संसदीय सर्वोच्चता न्यायिक सर्वोच्चता के ऊपर है केशवानंद भारती गोलकनाथ मिनर्वा मिल्स जैसे विवादों में कहा गया की किसी भी कानून से संविधान के आधारभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता और न ही मूल अधिकारों को रोका जा सकता है इसमें एक और बिंदु दबाया जब मिनर्वा मिल्स में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि संसद के पास संविधान संशोधन की असीमित शक्ति है जो धारा 368 में संसद को प्राप्त है

सांसद और सर्वोच्च न्यायालय में टकराव का सबसे बड़ा बिंदु कॉलेजियम सिस्टम है जिसमें पहले से कार्यरत मुख्य न्यायाधीश कर न्यायाधीशों के साथमिलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि अगला न्यायाधीश कौन-कौन होगा जिसे उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में नियुक्त किया जाए यह अधिकार संविधान का नहीं है स्वयं न्यायपालिका द्वारा बनाया गया है और इतना मजबूत हो गया है कि अब कॉलेजियम सिस्टम में किसी भी कार्यपालिका या सांसद का हस्तक्षेप नहीं रह गया है

इस संदर्भ में एक और बात को स्पष्ट कर देना है यद्यपि भारत के संविधान में दुनिया के लगभग हर संविधान से कुछ ना कुछ लिया गया है लेकिन भारत का अधिकांश संविधान ब्रिटेन और अमेरिका के द्वारा लिया गया है अमेरिका में न्यायपालिका की सर्वोच्चता है जबकि ग्रेट ब्रिटेन में वहां की संसद सर्वोच्च है क्योंकि वहां कोई लिखित कानून लिखित संविधान है ही नहीं इस प्रकार भारत में गणतंत्र और लोकतंत्र की मिली जुली पद्धति लोकतांत्रिक गणराज्य की पद्धति बनाई गई जो अधिक सफल नहीं हो पा रही है इससे देश आधा तीतर आधा बटेर जैसी स्थिति में आ गया है दुर्भाग्य बस जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग अपने-अपने अनुसार न्यायपालिका संविधान और संसद के बारे में लेख लिखा करते हैं


इस प्रक्रिया में एक और बात को जान लेना आवश्यक है की न्यायपालिका अर्थात सर्वोच्च न्यायालय और संसद का संबंध बहुत कुछ दोनों पदों के शीर्ष पर बैठे हुए मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री पर भी निर्भर करता है जो कमजोर एवं निर्णय लेने में प्रभावी नहीं रहता वह दूसरे के ऊपर प्रभावी हो जाता है जिस प्रकार नेहरू और इंदिरा गांधी थे अगर वैसा कोई व्यक्ति होता तो यह सब नौबत नहीं आती जो आज पैदा हुई है दूसरी बात संबंधित दल का प्रधानमंत्री कितने बहुमत में है यह भी सर्वोच्च न्यायालय को प्रभावित करता है इस समय मोदी सरकार प्रभावी बहुमत में नहीं है इसलिए भी अधिकतर निर्णय उनके विरुद्ध जा रहे हैं देश को यह अनुभव हो रहा है कि कुछ ना कुछ मूलभूत परेशानी है जिसकी कीमत देश की जनता को चुकानी पड़ रही है

वैसे भी संसद को एक निश्चित बहुमत के द्वारा किसी भी न्यायाधीश को हटाने काअधिकार है जबकि न्यायालय के पास यह शक्ति नहीं है इस संदर्भ में न्यायाधीश कर्णन रामास्वामी और यशवंत वर्मा जी सहित अनेक न्यायाधीशों के चाल चरित्र से न्यायपालिका की साख को गहरा धक्का पहुंचा है और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को दिवस होकर यह कहना पड़ा है कि देश के न्यायालय राष्ट्रपति को आदेश निर्देश जारी नहीं कर सकते जो बिल्कुल उचित है

इस संदर्भ में निशिकांत दुबे और सैकड़ो अन्य लोगों के वक्तव्य को भी अन्य देखा नहीं किया जा सकता देश या जानना चाहता है कि आखिर तीस्ता सीतलवाड़ गिरीश सोमैया गोधरा और बेस्ट बेकरी कांड बुलडोजर और मुर्शिदाबाद बंगाल कांड पालघर और पहलगाम जैसे अनगिनत मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का एक साथ दोहरा व्यवहार स्पष्ट रूप से देखने को क्यों मिल रहा है ।

न्यायपालिका के अंदर बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जो नहीं चलना चाहिए जिस पर अधिक लिखना उचित नहीं है लेकिन जो वादकारी थके हारे पीढ़ियों से मुकदमा लड़ रहे हैं वह अधिकारियों से और उनकी स्थिति से सर्वोच्च न्यायालय और उच्च

न्यायपालिका के अंदर बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जो नहीं चलना चाहिए जिस पर अधिक लिखना उचित नहीं है लेकिन जो वादकारी थके हारे पीढ़ियों से मुकदमा लड़ रहे हैं वह अधिकारियों से और उनकी स्थिति से सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को अवगत होकर उसे पर प्रभावित कार्यवाही अवश्य करनी चाहिए इसके साथ ही न्यायिक तंत्र में फैले हुए भ्रष्टाचार घूसखोरी और चाटुकारिता की भावना को भी प्रभावी ढंग से समाप्त करना होगा इसमें अपने संपत्ति की घोषणा करना भी एक उदारता पूर्ण और प्रभावी कदम होगा और नए परिसर में हर प्रकार के अन्य अत्याचार को रोकना न्यायिक तंत्र की सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और इस बारे में एक व्यापक सर्वेक्षण भी होना चाहिए क्योंकि न्यायपालिका में फैले हुए मुकदमों में करोड़ों लोग फंसे हुए हैं और यह देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा सिद्ध हो रहा है क्योंकि प्रतिदिन करोड़ों लोग केवल मुकदमों के संदर्भ में न्यायालय आते हैं और जाते हैं और उतना मानव श्रम बिल्कुल बेकार हो जाता है यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ मुकदमे सप्ताह और महीना में कैसे निर्णीत हो जाते हैं और क्यों उन्हें लंबित पड़े हुए करोड़ों करोड़ों मुकदमों में नहीं अपनाया जा सकता है।

न्यायपालिका को भी गहराई से और निष्पक्ष रूप से बिना कोई अन्यथा लिए विचार विमर्श करना चाहिए क्योंकि यह टकराव किसी भी प्रकार से न्यायपालिका संसद या देश के हित में नहीं है जबकि न्यायपालिका यह अच्छी तरह जानती है की लोकतांत्रिक प्रणाली में यहां तक की गणतंत्र में भी संसद ही सर्वोच्च होती है वह कानून बना सकती है उसमें संशोधन कर सकती है नए कानून ला सकती है न्यायाधीशों को हटा सकती है और उनकी नियुक्ति में भी प्रभावी भूमिका निभा सकती है और नियुक्त हो जाने पर भी राष्ट्रपति के पास उसे रोके जाने का ब्रह्मास्त्र मौजूद है सबसे अच्छा यह होता कि न्यायपालिका अपना संपूर्ण मस्तिष्क का प्रयोग करते हुए अपने लंबित सारे मुकदमों को निपटाकर देश और दुनिया के सामने एक अद्भुत प्रतिमान स्थापित करती तो बाकी सारे बिंदु

अपने आप में नगण्य हो जाते कहीं ना कहीं कश्मीर मैं कश्मीरियों के साथ सामूहिक हत्या सामूहिक बलात्कार और पलायन दिल्ली में सिखों की हत्या पालघर और मुर्शिदाबाद तथा बंगाल जैसे कांड केराना और अभी बिल्कुल हाल में घाटा हुआ पहलगाम का कांड चीख चीखकर कोई अन्य कहानी कह रहा है और देशवासी न्यायिक सक्रियता के दोहरेपन पर हतप्रभ हैं न्याय प्रणाली और न्यायाधीश निश्चित रूप से सदैव सबसे सम्मानित और सबसे महत्वपूर्ण अंग होते हैं लेकिन उनको भी इस तंत्र की गरिमा और साख को बहाल रखना चाहिए संसद को भी न्यायपालिका की सर्वोच्च गरिमा का ध्यान रखते हुए ही कोई कदम उठाना चाहिए और सांसद तथा न्यायपालिका को यह मानकर काम करना चाहिए कि सारे देशवासी उनके घर के सदस्य जैसे हैं इसके बाद कोई गलत कदम उठाने की संभावना ही नहीं रह जाएगी l

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