कोटा में कोटा के विवाद का मामला भी पहुंचेगा सुप्रीम कोर्ट
- दलितों को तोड़ने की सत्तादल कर रहे हैं साजिश
- सभी वर्ग के आरक्षण खत्म करने की सीढ़ी हो गई तैयार
व्यक्ति का उत्थान उसकी जाति को निरूपण नहीं करता
सुप्रीम कोर्ट ने एक अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण बारे में ऐतिहासिक फै़सला सुनाते हुए कहा कि सरकार इन समुदायों के आरक्षण सीमा के भीतर अलग से वर्गीकरण कर सकती है। न्यायालय के इस फैसले का सीधा-सीधा अर्थ है क्रीमीलेयर। मेरा मतलब न्यायालय के फैसले का विरोध करना नहीं है, न हीं उस पर उंगली उठाना। सुप्रीम कोर्ट सबसे बड़ी न्यायिक संस्था है उसका फैसला सर्वोच्च है। मुझे उस फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि इस फैसले के बाद गेंद सरकार के पाले में आ जाएगी। सरकार संसद के पटल पर रखकर ही अपना निर्णय सुना सकती है। मैं अपने लेख में सिर्फ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव के बारे में विश्लेषण कर अपने विचार रख रहा हूं। मेरा मकसद सिर्फ और सिर्फ इतना है कि सरकार और दलित नेताओं की इस पर चुप्पी से है। अदालत की आड़ में सत्तापक्ष के लोगों ने वहीं किया जो उनकी मंशा थी। कोई भी देश दो-तीन राज्यों के दलितों की समस्या का आकलन कर उसे पूरे देश के दलितों पर लागू नहीं कर सकता। यह तो वही बात हुई की लकड़ी के लिए पूरे पेड़ को काटा जाए। इस फैसले की आग धीरे-धीरे फैल रही है। सभी दलित एकजुट होकर इसका विरोध करने जा रहे हैं। आंदोलन का स्वरूप तैयार कर रहे हैं। लेकिन सरकार की तरफ से कोई बयान न आना भी लोगों को साजिश की तरफ संकेत कर रहा है। मुझे लगता है कि राजनीतिक दल के साथ जुड़े दलित नेता भी ठीक ढंग से इस फैसले को समझ नहीं पाएं है। कुछ समझे हैं तो पार्टी की लाइन के खिलाफ बोलने की उनमें हिम्मत नहीं है। राजनीतिक दल का चुनाव के पहले सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास। आरक्षण बचाओ, संविधान बचाओ और पीडीए के नारे पर सदन में अपनी संख्या तो बढ़ा ली गई लेकिन दलित जनता के विश्वास के साथ सभी दल धोखाधड़ी कर रहे हैं। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं की राजनीतिक दल की नजर में दलित और हासिए का समाज सिर्फ वोटर बनकर रह गया है। अभी पड़ोसी बंगला देश का हाल किसी से छिपा नहीं है, कोटा के मामले ने गृहयुद्ध पैदा कर दिया और सेना के हाथ में देश चला गया। मेरा मानना है कि इस तरह के फैसले से देश की सर्वोच्च तीनों संस्थाओं को बचना चाहिए। साथ ही सरकार को भी न्यायालय के समक्ष ऐसे मामलों पर सुझाव रखने चाहिए।
सिर्फ चिराग पासवान ने ही इस मामले पर बोला कि सरकार से रिव्यू पिटीशन दाखिल करने कहा जाएगा। बड़े आश्चर्य की बात है कि जाति जनगणना की बात करने वाले भी इस फैसले पर अपने पार्टी की राजनीति का चश्मा लगाए हुए हैं। यह साबित करता है कि हम अपने को आदर्शवादी और दलितों का मसीहा बनने का नाटक करते हैं। संविधान और आरक्षण बचाने का भरोसा दिलाने वाले वोट लेने के बाद भी एक भी बयान दलितों के पक्ष में नहीं दिए। चाहे वह काग्रेस सपा हो या राजद। इसलिए एससी और एसटी समाज को एकजुट होना पड़ेगा। मेरा मानना है कि इस तरह के फैसले से देश में जातिविहीन समाज की स्थापना का प्रयास चल रहा है। आने वाले दिनों में इससे कोई जाति को उत्तर प्रदेश में 30 प्रतिशत रिजर्वेशन मिले और महाराष्ट्र में उसे 5 फीसदी मिले। इससे राजनीतिक रूप से मजबूत नेता यानी सत्ता पक्ष एससी और एसटी में सरकार को समर्थन करने वाली जाति के आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा सकते हैं। ओबीसी के क्रीमीलेयर और एसी-एसटी के क्रीमीलेयर में काफी अंतर है। यह प्रवेश, नौकरी से लेकर विधानसभा और लोकसभा की सुरक्षित सीटों पर लागू होगा। इससे अब जाति की राजनीति राज्यों में गहरा जाएगी और यह राज्य सरकार की मर्जी पर डिपेंड हो जाएगी। अब सरकार चाहेगी कि पढ़े लिखे विद्वान शिक्षक और रिटार्यड आईएएस राजनीति में नही आए। कम पढ़े लिखे लोगों को वह वोट देकर कठपुतली बनाकर लोकसभा और विधानसभा में लाएगी ताकि कोई इनकी आवाज को न उठा सके। यह फूट डालो और राज करों की नीति अपनाएगी। 17 राज्य ऐसे हैं जहां जाति की राजनीति पर सरकार बनती और बिगड़ती है। देश के दलित नेताओं को यह समझना होगा कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
यह एक दूरगामी सोच के तहत साजिश की गई है। यह देश के पूरी आरक्षण व्यवस्था को आने वाले दिनों में ध्वस्त करने वाली है। आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। यह आर्थिक आधार पर नहीं सामाजिक आधार पर बना है। यह एक साजिश है। एसी और एसटी को मुख्यधारा से अलग करने की। अगर इसमें क्रीमीलेयर लागू हो गया तो एससी और एसटी के लोग सिर्फ क्लर्क, चपरासी और सिपाही कैडर में ही नौकरी पाएंगे, क्योंकि जो स्टीफेंस और कान्वेंट कल्चर के बड़े स्कूलों में पढ़ने वाले लोग है जाहिर से बात है कि उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। वह क्रीमीलेयर के कारण सिविल सर्विस की परीक्षा में जनरल कैंडिडेट के रूप में शामिल होंगे। अगर किसी भी तरह वह परीक्षा पास करते है तो उन्हें इंटरव्यू के दौरान नंबर कम दिया जाएगा ताकि उनका सेलेक्शन नहीं हो, क्योंकि उन पर दलित की मुहर लगी है। इसका उदाहरण उच्च शिक्षा और बड़े पदों के इंटरव्यू में देखा जा रहा है। सभी आरक्षित सीट को एनएफएस (नाट फार सूटेबल) किया जा रहा है। अगर क्रीमीलेयर की व्यवस्था लागू हो गई तो गरीब तबके के लोगों के पास उच्च पदों पर पहुंचने के लिए न तो कोचिंग करने का पैसा होगा न ही हास्टल में रहकर तैयारी करने की सुविधा होगी। जाहिर सी बात है कि सभी सीट पर योग्य उम्मीदवार ही नहीं मिलेंगे और आगे चलकर यह सीट जनरल कैटेगरी को मिल जाएगी। हमें इस साजिश को समझने की जरूरत है। अगर हमारे समाज का क्रीमीलेयर व्यक्ति आईएएस बनता है बड़े पदों पर जाता है, मंत्री बनता है तो हम तो अपनी गुहार लगा सकते हैं उससे। मेरा मानना है कि इस फैसले से हम फिर 1947 के पीछे वाली स्थिति में जा सकते हैं। इस फैसले को लागू करना सरकारों के लिए काफी कठिन होगा। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सुनाए फ़ैसले के बारे में बॉम्बे हाई कोर्ट के वकील संघराज रूपवते ने कहा, “सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों ने एक बार फिर अदालत की आड़ में वही किया है जो वे चाहते थे. यह एक ऐसा फ़ैसला है जो हमें जातिविहीन समाज से दूर ले जाता है. अनुसूचित जाति और जनजाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देना छह न्यायाधीशों की एक बड़ी गलती है. जस्टिस बेला त्रिवेदी की एकमात्र असहमति ही संवैधानिक क़ानून का सही पुनर्कथन है.” उल्लेखनीय है कि पंजाब में 1975 में एसी. एसटी एक्ट की आरक्षित सीट को दो भागों में बांट दिया गया है।
पहला बाल्मीकि और मजहबी सिख और दूसरा अन्य अनुसूचित जाति। तीस साल तक यह नियम लागू रहा 2006 में मामला पंजाब, हरियाणा हाईकोर्ट में पहुंचा। इसमें 2004 के ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले का हवाला देते हुए रद कर दिया। कहा कि अनुसूचित जाति और जनजाति में सब कटेगरी एलाऊ नहीं है, क्योंकि यह समानता के आदेश का उल्लंघन है। कुछ सामान्य वर्ग के बुद्धजीवियों का मानना है कि आरक्षण की वजह से देश बर्बाद हो रहा है। अब ये बताइये की देश आजाद होने के बाद 14 व्यक्ति देश के राष्ट्रपति बने और 15 प्रधानमंत्री, 43 चीफ जस्टिस और 19 मुख्य चुनाव आयुक्त बने इसमें कितने रिजर्वेशन वाले हैं। हम घोटाले की बात करें तो सत्यम घोटाला, बोफोर्स घोटाला समेत सैकड़ों घोटाले में कोई दलित नहीं है तो ये देश को बर्वाद करने वालों में कौन हैं। बस हमारे समाज के लोग कुछ अच्छे पदों पर चले गए तो इनके पेट में दर्द होने लगा। जाति एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है, आर्थिक स्थिति का जाति पर कोई असर नहीं पड़ता है। बाबा साहेब ने दलितों को आरक्षण का आधार भी सामाजिक बनाया था न कि आर्थिक। ओबीसी का आरक्षण बाद में आया। यह ऐसे समय में आया कि ओबीसी से जुड़ी कई जातियां सम्पन्न हो चुकी थी, इसलिए इसमें क्रीमीलेयर की जरूरत पड़ी। इस आरक्षण का आधार सामाजिक भेदभाव नहीं था, इसलिए लोकसभा और विधानसभा में इनके लिए सीट सुरक्षित नहीं की गई। कुल मिलाकर यही कहना है कि आरक्षण का आधार छुआछूत है। कोई इसे कैसे बदल सकता है। क्रीमीलेयर व्यक्ति पर लागू होता है जाति पर नहीं। ये लेखक के निजी विचार हैं।
डॉ. सुनील कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर